कहती है काशी खरी-खरी तो बस गांधी ने सुनाई
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मैं काशी हूं। अविमुक्त हूं, अविनाशी हूं। देश-दुनिया के लोग मेरे मर्म की थाह लेने आए। कुछ ने जाना, कुछ छूछे हाथ धाए। इतना जरूर है कि जो भी यहां आया, कुछ देर के लिए ठिठका, कुछ पलों के लिए भरमाया। जहां तक उसकी दृष्टि गई उतना ही समझ पाया। किस-किस का नाम लूं, स्वामी रामानंद से स्वामी विवेकानंद तक, और गालिब से गांधी तक ने मुझसे कई मर्तबा मुलाकात की। किसी ने जन्नत से तुलना की तो किसी ने तीनों लोकों से न्यारी होने की बात कही। सच मानिए मुङो अच्छा लगा।कभी मैं ठुमकी, कभी इतराई। कभी मुस्कुराई, कभी खिलखिलाई। मगर यकीन मानिए, सचमुच अगर मैंने किसी से ठहर कर बात की तो वह थे मोहनदास करमचंद गांधी, जिन्होंने कुल 11 बार भेंट की और हर दफा सीधे सपाट लफ्जों में बस खरी-खरी सुनाई। तनिक भी अन्यथा मत लीजिएगा अगर मैं यह कहूं कि लोग मेरे मुरीद हुए और मैं मुरीद हो गई लकुटी वाले गांधी की साफगोई पर।
मुङो याद है महीना फरवरी, 1902 का जब गांधी से मेरी पहली मुलाकात हुई। बाबा विश्वनाथ के दरबार में वे गलियों से लेकर मंदिर तक की गंदगी पर बे-लौस बोल रहे थे। पंडे की ज्यादतियों को अपनी आदत के मुताबिक विवेक की तराजू पर दृढ़ता के साथ तौल रहे थे। पंडाजी एंठने पर आमादा, लेकिन गांधी का भला कहां डिगता इरादा।
तीसरी-चौथी और पांचवीं बार मोहनदास से मेरी मुलाकात क्रमश: नवंबर 1920, फरवरी 1921 और अक्टूबर 1925 में बार-बार हुई। अब वे सिर्फ गांधी नहीं महात्मा थे। इन दौरों के दौरान भी उन्होंने छात्र-शिक्षकों को पुकारा। सियासियों को राष्ट्रवादी बनने को ललकारा और जलियां वाला बाग कांड को कायरता करार देते हुए खुले मंच से धिक्कारा। गांधी बार-बार मेरी सरजमीं पर आए, मुझसे और मेरे आंचल में बसे लोगों से खूब बतियाए। आखिरी बार उनका आना 21 जनवरी 1942 को हुआ और वे काशी हिंदू विवि के रजत जयंती समारोह में शामिल हुए।