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अटल बिहारी वाजपेयी की पुण्यतिथि आज जाने कुछ खास बाते। …

शुद्ध ह्रदय की ज्वाला से विश्वास दीप निष्कंप जलाकर. कोटि-कोटि पग बढ़े जा रहे तिल-तिल जीवन गला-गलाकर. जब तक ध्येय न पूरा होगा, पग की गति नहीं रुकेगी. आज कहे कुछ दुनिया कल को बिना झुके ये नहीं रहेगी.”

ये एक युगदृष्टा की अटल वाणी है. एक अजातशत्रु का अटल विश्वास था. कविह्रदय पीएम का जीवन दर्शन था. जिह्वा में जिसकी सरस्वती बसती हो ऐसे राजनेता के शब्द थे. इन शब्दों में ही एक भारत को उत्कर्ष तक पहुंचाने का रोडमैप भी था.

साथ ही सभी भारतवासियों के साथ विकास और उत्कर्ष के लक्ष्य को पाने की विराट सोच भी. यह युगपुरुष सिर्फ शब्दों का बाजीगर या चितेरा नहीं, बल्कि उनको जमीन पर साकार करने के लिए निरंतर संघर्षरत योद्धा था. भारतीय राजनीति के इस पुरोधा को यदि 21वीं सदी के भारत का आर्किटेक्ट कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी.

वाकई वे नाम की तरह भारतीय सियासत और इतिहास में अटल हो गए. एक व्यक्ति के रूप में अटल जितने सहज थे, व्यक्तित्व के रूप में उतने ही विराट और पता नहीं कितने आयाम उभरकर आते रहे.

धुन के पक्के, दोस्ती में सच्चे, विचारधारा पर अटल और सबसे बड़ी बात आरएसएस के स्वयंसेवक की पहली पहचान के साथ ही सर्वधर्म-समभाव के दर्शन के सबसे बड़े ब्रांड एंबेस्डर भी. अटल हमेशा किसी भी पद से बड़े कद के नेता रहे.

जनसंघ से लेकर बीजेपी के पहले अध्यक्ष तक के सफर में कितने भी उतार-चढ़ाव देखे हों, लेकिन अपनी सोच से कभी डिगे नहीं. बीजेपी के तो वे श्लाकापुरुष रहे, लेकिन पीएम के तौर पर अटल ने जो किया वह राज की बात की केंद्रीय विषयवस्तु है.

उनकी शख्सीयत के तमाम आयामों के बीच जो सबसे बड़ी बात सबसे कम उभर कर सामने आती है वो है अब तक के सबसे बड़ा रिफार्मिस्ट पीएम होना. यकीन मानिए 1991 में नरसिंह राव और मनमोहन की जोड़ी ने सुधार की जो पटरियां बिछाई थीं,

उस पर त्वरित विकास की रेलगाड़ी दौड़ाने का काम प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने किया. 21वीं शताब्दी में जब दुनिया जा रही थी, उसी समय जल-थल से लेकर नभ तक सुधारों वाले फैसले न लिए गए होते तो नई शताब्दी में भारत इस तरह से उभरती हुई ताकत नहीं होता.

पीएम रहते अटल बिहारी वाजपेयी ने वास्तव में नरसिंह राव के समय में जो उदारवाद की राह पर देश बढ़ा था, उसे रफ्तार दी और देश की अर्थव्यवस्था को ऐसी शक्ल मिली जो 21वीं सदी के लायक थी.

1998 से लेकर 2004 तक वाजपेयी के नेतृत्व वाली राजग सरकार ने कई ऐसे फैसले लिए, जिसने हमारी और आपकी जिंदगी में सीधा असर डाला. वाजपेयी की सबसे बड़ी ताकत थी जनता से संवाद और अपनी बात देश के कोने-कोने में पहुंचा देने का चत्माकारिक हुनर.

तो वाजपेयी को जिन दो सबसे बड़ी बातों के लिए याद किया जाएगा वो है उन्होंने नेटवर्क के जाल से पूरे भारत को संवाद तंत्र से जोड़ दिया टेलीकाम क्रांति के जरिए. साथ ही एक जगह से दूसरी जगह जाने के लिए

उन्होंने स्वर्णित चतुर्भुज योजना के जरिए देश के सुदूरवर्ती इलाकों को भी ऐसे जोड़ा कि वाहन से लेकर यातायात तक की सबसे बड़ी न सिर्फ क्रांति हुई, बल्कि रोजगार भी मिले.

आज लगभग हर हिंदुस्तानी और उसके परिवार बस एक मोबाइल काल से जुड़े हुए हैं. भारत में यह अटल की दूरगामी सोच से ही संभव हो पाया. पहले स्पेकट्रम पर सरकार और सेना का कब्जा होता था.

उसे निजी क्षेत्र के लिए खोलने से न सिर्फ पूरा देश और दुनिया संवाद के तंत्र से जुडी, बल्कि रोजगार के जबर्दस्त अवसर भी पैदा हुए. इसी तरह राजमार्ग बनाने वा गांवों को पक्के

रास्ते से जोड़ने का जो क्रांतिकारी फैसला हुआ, उसने विकास की रफ्तार को सरपट दौड़ाया. इसी तरह टैक्स रिफार्म को लेकर पूरे देश को साथ लेने की शुरुआत भी वाजपेयी के समय में हुई.

टैक्स रिफार्म सिर्फ केंद्र सरकार का कर्मकांड नहीं, बल्कि पूरे देश की जरूरत है. इसे न सिर्फ वो समझे, बल्कि सभी दलों को समझाने में भी कामयाब रहे. समावेशी राजनीतिक सिद्धांत के मद्देनजर अटल ने टैक्स के लिए बनी कमेटी के अध्यक्ष का पद विपक्ष को दिया और सभी दलों की शिरकत की.

वह एक शुरुआत थी जो अब एक देश और एक टैक्स के मुकाम तक पहुंच सकी. इसके अलावा ऊर्जा में सुरेश प्रभु को लाकर निजी क्षेत्र को यहां लाए. तमाम राजनीतिक विरोधों के बावजूद आज ऊर्जा के क्षेत्र में भारत की स्थिति उसी समय लिए गए फैसले की रोशनी का विस्तार है.

स्टील अथारिटी आफ इंडिया को पुनःर्जीवन से लेकर विनिवेश जैसे साहसिक फैसले भी लेने से नहीं चूका गया. अभी पीएम मोदी की महत्वाकांक्षी सागरमाला परियोजना जो समुद्रवर्ती इलाकों के विकास और रोजगार के लिए बेहद अहम है

और अंर्तराष्ट्रीय व्यापार के लिहाज से बेहद जरूरी और फादा का सौदा है, उसकी भी शुरुआत वाजपेयी सरकार में ही हुई थी. जिस तरह से पानी को लेकर तमाम राज्यों के बीच में विवाद चल रह है,

उसका भी निराकरण अटल नदी जोड़ो परियोजना के तहत लाए थे. केन-बेतवा और कुछ जगह यह प्रयोग सफल कर अटल ने साबित कर दिया था कि वो सिर्फ राजनेता नहीं, बल्कि युगदृष्टा हैं.

जरा सोचिए कि ये सब सुधार अटल बिहारी वाजपेयी ने किस समय किए. वह राजनीति का सबसे दुरूह संक्रमणकाल था. मंडल-कमंडल की सियासत से तमाम क्षेत्रों, जातियों, भाषाओं और धार्मिक अस्मिता जैसे मुद्दे अपने सबसे चरम पर थे.

पूरे देश में क्षेत्रीय दलों का आविर्भाव. सियासत में नए क्षेत्रीय खिलाड़ियों की बढ़ती भूमिका और दबाव. वहीं, नई शताब्दी में जाती दुनिया, जिसमें भारत की राजनीति अस्थिरता के चरमोत्कर्ष से गुजर रही थी.

गठबंधन सरकारें लगातार असफल हो रही थीं. ऐसे में जब सरकार बचाना और देश को अस्थिरता के भंवर से निकालना सबसे बड़ी चुनौती थी तो अटल ने देश को गठबंधन धर्म का मर्म समझा और हिंदुस्तान के लोकतंत्र को मजबूत करने वाला मिली-जुली सरकार चलाने का गुरुमंत्र भी दिया.

राजनीतिक अस्थिरता कितना गंभीर संकट था. इसे ऐसे समझिए कि 991 में जब पीएम नरसिंहराव ने दुनिया के लिए भारत के दरवाजे खोले तो भारत में आम लोगों की जेब तक पैसा पहुंचाने की शुरुआत हुई.

बाहर से निवेश और निजी क्षेत्र के लिए राह आसान करने से जो आर्थिक विकास की प्रक्रिया बढ़ी थी 1996 में रुकती हुई दिखने लगी. पहले 13 दिन में वाजपेयी की सरकार गिरी. फिर देवगौड़ा बने और फिर इंद्र कुमार गुजराल के नेतृत्व में दो संयुक्त मोर्चा सरकारें बनीं,

लेकिन आपसी खींचतान में न तो कुछ फैसले हो पा रहे थे और न ही सरकार कार्यकाल पूरा कर पा रही थी. ऐसी स्थिति में दो दर्जन से ज्यादा दलों के साथ पहले 1998 से 1999 तक 13 माह और फिर 1999 से 2004 तक वाजपेयी ने दो दर्जन दलों को साथ में लेकर सरकार चलाई.

पूरब से लेकर पश्चिम तक और उत्तर से लेकर दक्षिण तक तमाम क्षेत्रीय दलों के साथ मिलकर मिली-जुली सरकार में भी सबको सम्मानजनक भागीदारी देकर वास्तव में लोकतंत्र की प्रतिष्ठा को नया आसमान दिया.

साथ ही वैश्विक फलक पर भारतीय अरमानों को छा जाने का नया फलक भी. वैसे वाजपेयी के व्यक्तित्व का ही यह चुंबक था कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से निकले जनसंघ और फिर बीजेपी की राजनीतिक अस्पृश्यता को उन्होंने खत्म किया.

1970-80 के दशक में पहले बीजेपी को उन्होंने तमाम राजनीतिक दलों के बीच स्वीकार्य बनाया और फिर सदी के अंत में उन्होंने लोकतंत्र में गठबंधन सरकारें कैसे राष्ट्रीय हित में बड़े फैसले ले सकती हैं, इसकी नजीर पेश की.

वाजपेयी की सबसे बड़ी ताकत थी, वैचारिक प्रतिबद्धता के साथ तार्किक और संवेदनशील सियासी रचना. संसदीय गरिमा को लेकर सजग, विपक्षी दलों पर मुद्दों पर कठोर प्रहार के साथ लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति अटूट निष्ठा उनका जीवन दर्शन था.

यही कारण है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी वह –आउट आफ बाक्स- जाने से नहीं चूके. अमेरिका समेत पूरी दुनिया की धौंस के सामने न झुकते हुए पोखरण-2 कर परमाणु शक्ति संपन्न बने और दुनिया के प्रतिबंध झेले, लेकिन उससे और ज्यादा मजबूत होकर भारत उभरा.

इसी तरह पाकिस्तान जैसे पड़ोसी के साथ लाहौर यात्रा जैसा साहसिक कदम. इसके बाद करगिल युद्ध छेड़ पाकिस्तान ने पीठ पर छुरा घोंपा. फिर भी आगरा में शिखर वार्ता कर शांति कायम करने की कोशिश भी की.

हालांकि, करगिल हो या संसद पर हमला, इसके बाद सख्त फैसले लेने से भी अटल ने गुरेज नहीं किया. अटल की इस सदइच्छा और कूटनीति का ही परिणाम था कि दुनिया के सामने पाकिस्तान का असली आतंकी और अविश्वसीय देश का चेहरा सामने आया.

अगर अटल बिहारी वाजपेयी को राजनीति से लेकर अर्थनीति तक का सबसे बड़ा सियासी रिफार्मिस्ट यानी सुधारवादी कहा जाए तो शायद गलत नहीं होगा. गठबंधन सरकार चलाने का चमत्कार करना उस समय मेढक तौलने जैसा था, वो तो किया ही.

इसके साथ ही 2004 का बीजेपी और एनडीए का कैंपेन आजाद भारत के इतिहास में सबसे अलहदा था. नतीजे भले ही एनडीए के पक्ष में न गए हों, लेकिन सच्चाई यह है कि सकारात्मक प्रचार के जरिए चुनाव लड़ने की वह पहली कोशिश थी.

इंडिया शाइनिंग का नारा देकर खासतौर से युवाओं के दिल मे जगह बनाने की कोशिश की गई थी. मगर कुछ तात्कालिक परिस्थितियां और बीजेपी की अंदरूनी सियासत और कमी से एनडीए नहीं आ सकी थी.

अटल बिहारी वाजपेयी के इतने किस्से और कहानियां हैं. इतना कहा और किया है कि सब पर चर्चा करने में महीनों लग जाएंगे, फिर भी पूरा नहीं पड़ेगा. बतौर प्रधानमंत्री और बीजेपी के नेता के तौर पर वह सबसे बड़े और सर्वमान्य गैरकांग्रेसी राजनेता थे,

इसमें कोई संदेह नहीं. अटल को लोग लचीला और समावेशी बताते हैं और लगातार विपक्ष तो कहता रहा कि –एक अच्छा व्यक्ति, गलत पार्टी में है.– मगर अटल ने न सिर्फ हमेशा इसे नकारा, बल्कि कभी भी अपने हिंदू होने और वैचारिक प्रतिबद्धता को छिपाने का काम नहीं किया.

चाहे जनता पार्टी के संघ छोड़ देने की शर्त के बाद सरकार से निकल जनसंघ का नाम बदलकर भारतीय जनता पार्टी का संस्थापक अध्यक्ष बनकर अपनी पहचान पर समझौता न करने का फैसला रहा हो या फिर पीएम रहते खुद को पहले स्वयंसेवक बनाने का, अटल इस मामले में बिल्कुल स्पष्ट थे.

अटल का जीवन दर्शन बिल्कुल स्पष्ट था कि अराध्य और आस्था से कोई समझौता नहीं करेंगे. मगर इसका दूसरा पहलू यह था कि दूसरे के मजहब और उपासना पद्वति के आधार पर उससे कोई भेद नहीं होगा.

वैचारिक मतभेद होने पर वह अपने मूल्यों पर अडिग थे, लेकिन दूसरे के विचार को भी पूरा सम्मान और स्थान था. वे खुद को हिंदू कहने में गर्व महसूस करते थे, लेकिन संकुचित हिंदुत्व के विचार को वह सिरे से खारिज करते थे.

जम्मू-कश्मीर को लेकर संघ और बीजेपी का जो मत था, उससे वह कभी नहीं डिगे. यह अलग बात है कि वह सभी को साथ लेकर चलकर समाधान की दिशा में बढ़ते रहे. जम्हूरियत और इंसानियत का जो सूत्रवाक्य देकर अटल गए, उससे ही रास्ता निकला.

कहते हैं कि असली राजनेता वो होता है, जिसके लिए गए फैसले आगे देश की संतति और संस्कृति के साथ और प्रासंगिक और दूरदर्शी नजर आएं. इस कड़ी में कहा जा सकता है कि अटल युग की छाप 21वीं सदी के भारत पर पूरी तरह से रहेगी.

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