सेवानिवृत्त सैनिकों को समझना चाहिए कि पेंशन पर खर्च कम करने में सेना की ही भलाई है :-
चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ (सीडीएस) जनरल बिपिन रावत के मातहत सैन्य मामलों का विभाग सेना के अधिकारियों की सेवानिवृत्ति की उम्र बढ़ाने के नये प्रस्ताव पर विचार कर रहा है. इन अधिकारियों में जूनियर कमीशंड अफसर और कुछ चुनिंदा शाखाओं की दूसरी रैंकों के अधिकारी भी होंगे. जनरल रावत ‘प्री-मैच्योर रिलीज़’ (पीएमआर) यानी समय से पहले सेना छोड़ने वालों के लिए नयी पेंशन नीति की पेशकश भी कर रहे हैं, जिसका लक्ष्य अपने केरियर के शिखर पर पहुंचे अधिकारियों को सेना छोड़ने से रोकना है |
लेकिन कार्यरत अधिकारियों और सेवानिवृत्त अधिकारियों ने इस पेशकश पर तीखी प्रतिक्रिया जाहिर की है. ‘पीएमआर’ लेने वाले ज़्यादातर वे ही होते हैं जो विशेष शाखाओं में काम कर रहे होते हैं और जिन्हें काम के दौरान ही ट्रेनिंग मिली होती है |
लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि नियमों को अचानक बदल दिया जाए. मुझे कोई कारण नहीं नज़र आता कि सेना किसी को उसकी मर्जी के खिलाफ जबरन काम पर रहने को मजबूर करना चाहेगी. अधिकतर वे लोग ही ‘पीएमआर’ लेते हैं जिन्हें सेना में प्रोमोशन के पिरामिडनुमा ढांचे के कारण अपने केरियर में ठहराव महसूस होता है या जो किसी कारण से असंतुष्ट होते हैं. ऐसे लोगों को जबरन रोके रखने की जगह सेना को ऐसी व्यवस्था बनानी चाहिए जो उन्हें सेना में बने रहने के लिए आकर्षित करे |
जनरल रावत दरअसल सेना के पेंशन बिल को कम करना चाहते हैं. उनकी कार्यशैली और उनके प्रस्ताव के बारे में कोई कुछ भी कहे, सच्चाई यही है कि सेना का भारी-भरकम पेंशन बिल हमारी सैन्य क्षमता को कमजोर कर रहा है और इसे कम करना जरूरी है |
केंद्रीय बजट 2020-21 में कुल 30.42 लाख करोड़ रुपये के खर्च का प्रावधान किया गया है जिसमें से प्रतिरक्षा विभाग के लिए 4.71 लाख करोड़ रु. रखे गए हैं जिनमें उसका पेंशन बिल भी शामिल है. यह प्रतिरक्षा बजट केंद्र सरकार के कुल व्यय के करीब 15.5 प्रतिशत के बराबर है. लेकिन बारीकी से देखने पर यह सदमे में डाल देता है. चालू बजट में पेंशन पर, जो कि रक्षा मंत्रालय के खर्चों का सबसे बड़ा मद है, 1.33 लाख करोड़ खर्च होंगे, जो कि इसके संशोधित अनुमान 1.17 लाख करोड़ से 13.6 प्रतिशत ज्यादा है. इससे भी ज्यादा चिंताजनक बात यह है कि यह वृद्धि आमदनी में हुई वृद्धि (जिससे रोजाना के खर्चे और वेतन बिल पूरे होंगे) और पूंजीगत कोश (आधुनिकीकरण और ख़रीदों के लिए) के मुक़ाबले ज्यादा है |
पैसे की कमी से सेना की क्षमता प्रभावित होती है. नौसेना ने 2027 तक खुद को 200 पोतों से लैस करने का जो लक्ष्य रखा था उसमें पैसे की कमी के चलते कटौती की गई है. अब वह 175 पोतों का बेड़ा बनाने का ही लक्ष्य रख रही है, जबकि चीन अपनी नौसैनिक क्षमता बढ़ाने पर भारी निवेश कर रहा है |
यहां तक कि वायुसेना और थलसेना भी पैसे की कमी महसूस कर रही है. वायुसेना को नये लड़ाकू और ट्रांसपोर्ट विमानों के अलावा उड़ान भरते हुए ईंधन भरने वाले विमानों की भी जरूरत है लेकिन पैसे की कमी के कारण उसे अपना हाथ बंधे रखना पड़ रहा है. शोधार्थी गैरी जे. श्मिट ने अपनी किताब ‘अ हार्ड लुक ऐट हार्ड पावर’ (अमेरिकी आर्मी वार कॉलेज द्वारा प्रकाशित) में लिखा है कि ‘कमजोर अर्थव्यवस्था और बजट बंधनो के कारण भारतीय सेना की विस्तार क्षमता सीमित हो गई है.’ उन्होंने यह भी लिखा है कि भारतीय रक्षा व्यवस्था मुख्य रूप से इसलिए संकट में है कि आधुनिकीकरण के लिए जो संसाधन उपलब्ध हैं वे लगभग पूरी तरह ‘राजस्व व्यय’ के खाते में चले जाते हैं जिसके चलते न तो ताकत देने वाले सामान बनते हैं और न सरकार की देनदारियां घटती हैं |
श्मिट ने लिखा है कि रक्षा बजट का करीब 60 प्रतिशत तो वेतन और पेंशन पर खर्च हो जाता है, जो यह बताता है कि पिछले तीन दशकों में भारत सेना में सैनिकों की संख्या कितनी बढ़ गई है, जबकि रक्षा के मद में सबसे ज्यादा खर्च करने वाले 10 देशों में इसका ठीक उलटा हुआ है |
नयी पेंशन स्कीम (एनपीएस) आइएएस, आइपीएस से लेकर नीचे क्लर्कों तक केंद्र सरकार के सभी कर्मचारियों के लिए 2004 में लाई गई थी. लेकिन सेना के कर्मचारियों को इससे अलग रखा गया क्योंकि उनकी कार्य शर्तें असैनिक कर्मचारियों की कार्य शर्तों से अलग हैं. इसलिए दोनों को एक तराजू पर नहीं तौला जा सकता |
लेकिन केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बलों (सीएपीएफ) को एनपीएस में शामिल किया गया, हालांकि उनकी कार्य शर्तें भी सिविल सेवा वालों की कार्य शर्तों से काफी अलग हैं और उन्हें कठिन क्षेत्रों और प्रतिकूल जलवायु वाली जगहों पर तैनात किया जाता है |
एनपीएस पूरी तरह कर्मचारियों के योगदान से चलने वाली योजना बनाई गई, जिससे सरकार पर पेंशन का बोझ घटे. यह सेनाओं पर भी पेंशन के बोझ को कम करने का उपाय बन सकता है |
नरेंद्र मोदी सरकार को सेनाओं के लिए ऐसी नयी एनपीएस लानी चाहिए, जो उन्हें सिविल कर्मचारियों से ज्यादा लाभ दे |
ले.जनरल प्रकाश मेनन और शोधकर्ता प्रणय कोटस्थाने का कहना है सेनाओं के कर्मचारियों को एनपीएस के दायरे में लाना ही प्रतिरक्षा महकमे पर बढ़ते पेंशन बिल के बोझ को कम करने का दीर्घकालिक समाधान हो सकता है. लेकिन वे यह भी कहते हैं कि यह एक भ्रम ही है कि वर्तमान राजनीतिक परिस्थितियों में यह मुमकिन है |
वास्तव में, उनका कहना है कि इस तरह का कदम उठाए जाने की राजनीतिक संभावना बेहद कम है. लेकिन सरकार को इस मामले में पहल करते हुए कुछ सख्त फैसले करने चाहिए | पेंशन पर खर्च को कम करने का एक तरीका यह भी है कि सेना के कर्मचारियों को बाद में केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बलों (सीएपीएफ) में तैनात किया जाए, लेकिन उसके काडर के अधिकारियों के सुस्त केरियर को प्रभावित किए बिना. सरकार ज्यादा सैन्य कर्मचारियों सरकारी नौकरियों में भेजने की पहल भी कर सकती है |
एक बार जब उन्हें केंद्रीय सरकार में नौकरी में ले लिया जाए तब उन्हें नयी नौकरी से रिटायर होने पर पेंशन दिया जाना चाहिए. अगर उनका नया वेतन अंतिम वेतन से कम हो तो दोनों के अंतर को पेंशन के तौर पर दिया जाए |
डिफेंस सिक्यूरिटी कोर (डीएससी) जैसे मामले में कर्मचारियों को नयी और पुरानी नौकरी में एक निश्चित अवधि तक सेवा देने के बाद नयी नौकरी के लिए भी पेंशन मिलती है, यानी दो पेंशन मिलती है. इसे भी ठीक किया जाना चाहिए |
मुझे पक्का विश्वास है कि पेंशन के खर्च को कम करने के कई उपाय हैं. जरूरत इस बात की है कि मोदी सरकार और सेनाएं साथ मिलकर कुछ कड़े फैसले करें, जो अंततः सेना के लिए फायदेमंद हों |