महाराष्ट्र की C-60 की तरह लड़ें नक्सल प्रभावित राज्यों के सुरक्षाबल,केंद्र की राज्यों को चिट्ठी
देश में नक्सल प्रभावित राज्यों को नक्सलियों के उत्पात से किस तरह निपटना चाहिए इसके लिए महाराष्ट्र के सी-60 कमांडो जवानों की नजीर दी गई है। केंद्र सरकार ने नक्सल प्रभावित राज्यों के पुलिस मुखिया और केंद्रीय अर्द्धसैनिक बलों के डीजी को महाराष्ट्र के तर्ज पर नक्सलियों के सफाये की रणनीति बनाने को कहा है। ये चिट्ठी केंद्रीय गृह सचिव राजीव गौबा द्वारा जारी की गई है जिसमें नक्सलियों से लोहा लेने वाले सुरक्षा बलों को महाराष्ट्र की सी-60 कमांडो की तर्ज की तरह स्कील्स और अभ्यास करने के लिए कहा गया है।
महाराष्ट्र के सी-60 कमांडो के जवान बेहतरीन तरीके से प्रशिक्षत कमांडो होते हैं जिनके डर से नक्सली थरथर कांपते हैं। आपको याद दिला दें कि हाल में कमांडो ने अप्रैल में दो अलग-अलग मुठभेड़ में 39 नक्सलियों को मार गिराया था और इस अभियान में इस बल को कोई नुकसान भी नहीं पहुंचा था। केंद्रीय गृह सचिव राजीव गौबा ने के मुताबिक नक्सलियों के आतंक को सामप्त करने के लिए सी-60 जैसे सशक्त और प्रशिक्षित सुरक्षा बल की जरूरत है।
दरअसल नक्सल प्रभावित राज्यों की सहायता के लिए केंद्र ने रणनिति बनानी शुरू कर दी थी। जिला स्तरीय बल का विचार 1989-90 में आईपीएस अधिकारी के पी रघुवंशी ने दिया था। आज भारत के 77 जिले नक्सलवाद से पीड़ित है जो की भारत के 10 राज्य के अंदर है ।
जिन लोगों का नाम लेकर आंदोलन की शुरूआत हुई समाज के वो शोषित वर्ग आज भी वही है, बल्कि और भी बदतर हालत में है । आंदोलन की आड़ में नक्सलियों ने पूरी समांतर सैन्य व्यवस्था बना ली है जिसमे कई पद और उनके वेतनमान है।आम लोगों को तंग करना और बड़े पैमाने पर पैसे उगाही के लिए हिंसा के वारदात को अंजाम देना नक्सलियों का काम है जो सरकार के लिए चुनौती बन चुकी है।
महाराष्ट्र सरकार ने सी-60 की जैसे ही तैनाती की, नतीजे देखने को मिलने लगे। आईये जानते हैं कि सी-60 में क्या खास है जिसकी वजह से आज नक्सलियों से लड़ने के लिए उनकी ताकत देश की जरूरत बन गई है।
कैसे हुआ सी-60 का गठन
1 महाराष्ट्र पुलिस ने 1989-90 में नक्सलियों के उत्पात से परेशान हो लड़ने के लिए एक विशेष टीम बनाने का फैसला किया था। राज्य के सबसे ज्यादा नक्सली प्रभावित इलाके गढ़चिरौली में स्थानीय लोगों को चुनकर इस कमांडो विंग का गठन किया गया।
2 शुरू में जिले के कई गांवों से 60 आदिवासी जवानों को इस फोर्स में भर्ती किया गया था। अभी इस यूनिट में 800 लोग शामिल हैं और ये गढ़चिरौली के अलग-अलग हिस्सों में 24 टीमों में बंटकर अभियान चलाते हैं।
कैसे देते हैं प्रशिक्षण
1 सी-60 के कमांडो अति प्रशिक्षित होते हैं। वे स्थानीय भूभाग, स्थानीय भाषा जैसे गोंडी तथा मराठी बोलते हैं। नक्सली इन इलाकों में इन्हीं भाषाओं में बात करते हैं। इस वजह से इन्हें स्थानीय लोगों से बात करने और नकसलियों के ठिकाने तक पहुंचने में मदद मिलती है।
2 सी-60 के कमांडो जीवन रक्षा के लिए बेहतर तरीके से प्रशिक्षित होते हैं जिसकी वजह से फोर्स को कम से कम नुकसान होता है। जंगल में युद्ध की स्थिति में उन्हें नक्सलियों को पछाड़ने में मदद मिलती है।
3 ये कमांडो नए-नए हथियार और गैजेट्स चलाने में भी दक्ष होते हैं। उनकी खुफिया क्षमता भी जबर्दस्त होती है क्योंकि उन्हें अपने गांवों की संस्कृति, लोग और भाषा के बारे में जानकारी होती है। स्थानीय लोग उन्हें जानते हैं और उनसे बात करने में उन्हें असुविधा नहीं होती है।
4 सी-60 बल का मुखिया भी आदिवासी ही होता है। इससे पूरी यूनिट में सुविधा का माहौल बनता है और स्थानीय लोगों का विश्वास जीतने में आसानी होती है।
सी-60 कैसे चलाते हैं अभियान
5 सी-60 के कमांडो ने इस साल अप्रैल में दो अलग-अलग अभियान में 39 नक्सलियों को मार गिराया था। इस ऑपेरेशन को देश का सबसे बड़ा नक्सल विरोधी अभियान कहा जाता है। इस अभियान में इस विशेष बल को कोई नुकसान भी नहीं पहुंचा था।
6 सबसे बड़ी बात कि सी-60 के कमांडो खुद से ही इस बल में शामिल होते हैं। इसमें शामिल कई लोग ऐसे होते हैं जिनके नाते-रिश्तेदार नक्सली हमले में अपनी जान गंवा चुके होते हैं।
7 नक्सलियों से लड़ने के लिए तेलंगाना और आंध्रप्रदेश में ग्रेहाउंड्स तथा ओडिशा में स्पेशल ऑपरेशंस ग्रुप हैं लेकिन ये सभी राज्य स्तरीय सुरक्षाबल हैं।
नक्सल विरोधी अभियान के लिए सीआरपीएफ ने छत्तीसगढ़, झारखंड, बिहार, ओडिशा और अन्य राज्यों के लिए कोबरा बटालियन का गठन किया है।
8 इसके अलावा सीआरपीएम ने एक ‘बस्तरिया बटालियन’ का गठन किया है, इसमें बस्तर जिले के स्थानीय आदिवासी लोग शामिल हैं। बस्तरिया बटालियन में 534 जवान हैं जिनमें 189 महिलाएं भी शामिल हैं। फिलहाल इन्हें गुरिल्ला युद्ध की ट्रेनिंग दी जा रही है।
उम्मीद है कि सी-60 कमांडो की जांबाजी और रणनीति का लाभ बाकी राज्यों को भी हो सकता है, क्योंकि स्थानीय लोगों की मदद के बिना नक्सली आतंक से छुटकारा पाना नामुमकिन है।