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एनडी पिता को बांचकर सुनाते थे अखबार, कुछ यूं बढ़ी राजनीति में दिलचस्‍पी

बल्यूटी गांव में जन्मे नरैंण यानी नाराणण दत्त तिवारी के बचपन के किस्से भी अनूठे हैं। बचपन से ही उन्हें पढऩे का बेहद शौक था। वह अपने पिता पूर्णानंद तिवारी को अंग्रेजी अखबार बांचकर यानी जोर-जोर से पढ़कर सुनाया करते थे। यहां तक कि वह गांव के अन्य लोगों के सामने भी इसी तरह अखबार बांचा करते थे। इस तरह अखबार पढऩे से उनकी समझ बढ़ी और राजनीति के शीर्ष पर पहुंचने के बाद भी समाचार पत्रों का नियमित अध्ययन करते रहे।

नरैंण के घर के पास ही ऊंची पहाड़ी पर सेब का बड़ा बगीचा था, जिसे जिलिंग एस्टेट कहते थे। इस एस्टेट के मालिक अंग्रेज मिस्टर स्टीफिल थे। तब उनकी अपनी निजी डाक व्यवस्था हुआ करती थी। स्टीफिल लाहौर से प्रकाशित अंग्रेजी दैनिक अखबार सिविल एंड मिलिटरी गजट मंगवाते थे। वह अपने समय का प्रसिद्ध समाचार पत्र हुआ करता था। उनके पास इंग्लैंड से भी अन्य समाचार पत्र आते थे। बालक नरैंण प्रतिदिन अपने घर से दो मील की पहाड़ी चढ़कर जिलिंग एस्टेट पहुंचते थे। वहां से वह अखबार लाते और शाम के समय अपने पिता के सामने अखबार बांचते। ऐसे में बचपन से ही उनकी अखबार पढऩे की आदत विकसित हो गई। मुख्यमंत्री से लेकर विदेश मंंत्री तक नरैंण दा हमेशा अखबार पढ़ा करते थे। उनमें राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय मुद्दों की गहरी समझ थी। उनका स्थानीय मुद्दों पर भी पूरा ध्यान रहता था। पढऩे की तीव्र ललक के चलते वह कभी चैन से नहीं बैठे।

नारायण दत्त तिवारी के पिता पूर्णानंद तिवारी बेहद अनुशासनप्रिय थे। बच्चे नरैंण व रामी यानी रमेश चंद्र तिवारी को वह कड़े अनुशासन में रखते थे। सविता असवाल दीपशिखा अपनी पुस्तक पंडित नारायण दत्त तिवारी आरोही में उनके बारे में बताती हैं, ‘नरैंण दा के परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। घर में चूल्हा जलाना, जंगल से लकड़ी काटकर लाना, पशुओं को चराने के लिए वन जाने में भी वह सहयोग करते थे।’

राफ्ट साहब से करते थे अंग्रेजी में चर्चा

जिलिंट एस्टेट के पास ही स्टीफिल के बड़े भाई मिस्टर राबर्ट की कोठी थी। लोग उन्हें राफ्ट साहब पुकारते थे। नरैंण तब टूटी-फूटी अंग्रेजी भाषा में उनसे बातें करते थे। राबर्ट भी उनकी बुद्धि व चातुर्य से बेहद प्रभावित हुए।

खुद हल चलाते थे एनडी

खुद कई जगह एनडी अपने बारे में कहा करते थे, ‘मेरा जन्म एक बहुत ही साधारण परिवार में हुआ था। पिताजी ने आजादी की लड़ाई में सरकारी नौकरी से इस्तीफा दे दिया। हम अपना हल स्वयं चलाते थे और खेत जोतते थे। जिन घरों में हम रहते थे, उन्हें बांखुली कहते थे। नीचे के कमरे में पशु रहते थे, ऊपर के कमरे मनुष्यों के लिए होते थे। ऐसी बांकुली में मेरा पालन-पोषण हुआ। यहां तक कि दूसरे-तीसरे दिन एक गुड़ की डली मिल जाए, वही बहुत मानी जाती थी। उसी की हम चाय पीते थे। लेकिन पढऩे की तीव्र आकांक्षा थी।’

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