दिन-रात की हाड़-तोड़ मेहनत, 24 घंटे में 500 तिरंगा तैयार करने का लक्ष्य और कमाई महज हजार रुपये, वह भी सिर्फ सीजन भर। देश की आन, बान व शान तिरंगे को आसमान की बुलंदियों पर पहुंचा रहे कारीगरों की माली-हालत खराब है। स्वतंत्रता दिवस से पहले दिल्ली के सदर बाजार में इनकी कहानियां हर गली में पसरी हैं। सीजन होने से फिलहाल तो इनके पास बात करने का भी वक्त नहीं है, लेकिन 15 अगस्त के बाद फिर से दुबारा से काम के लाले होंगे।
काफी हीलाहवाली के बाद बात करने को तैयार हुए कारीगरों का कहना है कि काम बढ़ने से अभी तो एक झंडे के दो रुपये मिल रहे हैं, महीने भर पहले एक रुपया भी नहीं मिलता था। लेकिन इसके लिए हर दिन 10-12 घंटे मेहनत करनी पड़ रही है। सदर बाजार में करीब 60 हजार झंडा रोजाना बनते हैं। करीब 500 से ज्यादा दिहाड़ी कारीगर इस काम में लगे हैं। बड़ी मायूसी से एक कारीगर ने कहा कि देश के झंडे को आसमान की बुलंदियों तक पहुंचाने के काम में हम कारीगरों की माली हालत खराब है। जानकर हैरानी होगी कि इन्हें एक झंडा बनाने के एवज में महज दो रुपये मिलते हैं।
वहीं, झंडा बनाने वाली एक फैक्टरी के मालिक अब्दुल गफ्फार ने बताया कि सदर बाजार के अलावा सीलमपुर और मुस्तफाबाद में उनकी झंडा बनाने की फैक्टरी है, जहां 500 से अधिक कारीगर काम करते हैं। वो करीब 60 साल से झंडा बनाते हैं। उनके यहां पॉलिस्टर के झंडे ज्यादा बनाए जाते हैं। विशेष ऑर्डर पर खादी के झंडे बनते हैं। झंडे के अलावा वह तिरंगे वाले बैज, दुपट्टा, विश बैंड, टैटू इत्यादि भी बनाते हैं। सोमवार को उन्हें करीब डेढ़ लाख पॉलिस्टर वाला तिरंगा बनाने का ऑर्डर मिला था। इन दिनों पूरे देश से उन्हें ऑर्डर मिल रहे हैं।उनके यहां 60 गुणा 90 वर्ग फुट, 20 गुणा 30 वर्ग फुट और 30 गुणा 45 वर्गफुट आकार का झंडा भी बनता है। सोमवार को उन्होंने 20 गुणा 30 वर्गफुट का दो झंडा लखनऊ भेजा है। अब्दुल गफ्फार ने बताया कि पॉलिस्टर के 20 गुणा 30 फुट के एक झंडे के निर्माण में करीब 16 रुपये की लागत आती है। खादी के 2 गुणा तीन वर्गफुट झंडे के निर्माण में करीब 120 रुपये की लागत आती है।
न्यूनतम 500 झंडे बनाता है एक कारीगर
एक कारीगर को एक दिन में न्यूनतम 500 झंडे तैयार करने होते हैं। इसके लिए उन्हें आयरन कटिंग और नेफा सिलाई करनी होती है। अब्दुल गफ्फार ने बताया कि झंडे बनाने के लिए पहले मिल से ग्रे कपड़ा आता है। फिर इसकी केमिकल धुलाई कर कपड़ा सफेद किया जाता है। फिर कपड़े को प्रिंटिंग में भेजा जाता है। इसके बाद लेजर कटिंग और झंडे की सिलाई होती है। आखिर में झंडे की पैकिंग कर सप्लाई होती है।