अक्सर कहते है कि पहलवान का मंदिर अखाड़ा होता है, जहां उनका करियर परवान चढ़ता है. परन्तु बदकिस्मती से बिहार के चैंपियन पहलवानों के अरमान खेतों में ही सिमटकर रह गए हैं. आठ वर्ष से निरंतर स्टेट चैंपियन और सीनियर नेशनल में बिहार का प्रतिनिधित्व करने वाले पटना के पंडारक निवासी कौशल नट दूसरे के खेतों में मजदूरी कर परिवार का पालन-पोषण कर रहे हैं. बिलकुल यही हाल कैमूर की पूनम यादव का भी है, जो पिता के साथ खेती करने को मजबूर हैं. मज़बूरी अक्सर इंसान के सपनो को भी ख़त्म कर देती है.
वही 2009 में स्कूल नेशनल गेम्स के कांस्य पदक विजेता कौशल नट की चप्पल छह वर्ष से सचिवालय दौड़ते हुए घिस गई. वह उम्र के 28वें पड़ाव पर हैं, परन्तु खेल कोटे से नौकरी पाना एक सपना बना हुआ है. 2014 और 2015 में तीन राष्ट्रीय स्पर्धा में प्रतिभागिता के बाद भी नौकरी नहीं मिल पाई. इसके साथ ही 2019 में पिता का निधन होने और नौकरी न मिलने से दुखी कौशल ने दूसरे के खेतों में मजदूरी करना आरम्भ कर दिया. दिन भर कार्य के एवज में मिलने वाले 300 रुपये से रात को घर का चूल्हा जलता है, जिससे वह बूढ़ी मां, पत्नी और चार बच्चे का पालन करते हैं.
आगे कौशल ने बताया कि जितना वक़्त कुश्ती में दिया उतना यदि पढ़ाई में देता तो अभी कुछ बन जाता. वह चाहते हैं कि सरकार उन्हें नौकरी दे, जिससे वह अपने बच्चों को भी पहलवान बना सकें. वही चार बार नेशनल में बिहार का प्रतिनिधित्व कर चुकीं कैमूर की महिला पहलवान पूनम यादव कि ज़िंदगी लॉकडाउन में लॉक हो गई. ट्रक ड्राइवर पिता घर बैठ गए तो बीते वर्ष दंगलों में इनाम में मिले पूनम के पैसे भी खर्च हो गए. फिलहाल पूनम अखाड़ा छोड़ अपनी जरा सी भूमि पर पिता के साथ खेती कर रही हैं. पूनम घर से 15 किलो मीटर दूर साइकिल से बिछिया व्यायामशाला जाकर ट्रेनिंग करती थीं. कहती हैं कि बिहार में लड़कियों के लिए भी एकलव्य कुश्ती केंद्र खुले तो हम लोग निराश नहीं होंगे. दोनों पहलवानो ने सरकार के समक्ष अपनी मांग रखी है.