थर्ड फ्रंट से मुश्किल हो सकती हैएनडीए और महागठबंधन की राह, ओवैसी के लिए बिहार तो बहाना है यूपी को ही साधना है:
बिहार में होने वाले विधानसभा चुनाव के पहले चरण के मतदान के लिए महज 15 दिनों का समय बचा हुआ है। इसी बीच राज्य में राजनीतिक गतिविधियां तेज हो गईं हैं। एनडीए और तेजस्वी के नेतृत्व वाले गठबंधन को रोकने के लिए थर्ड फ्रंट का ऐलान हो चुका है। जिसे ग्रैंड डेमोक्रेटिक सेकुलर फ्रंट का नाम दिया गया है। इस गठबंधन में बहुजन समाज पार्टी, राष्ट्रीय लोक समता पार्टी, एआईएमआईएम समेत 6 पार्टियां शामिल हैं।
मायावती, उपेंद्र कुशवाहा और असदुद्दीन ओवैसी वाला थर्ड फ्रंट जेडीयू-भाजपा वाले एनडीए और आरजेडी-कांग्रेस के महागठबंधन का खेल बिगाड़ सकते हैं। क्योंकि बिहार में असल मुकाबला एनडीए और महागठबंधन के बीच ही होने की उम्मीद की जा रही है लेकिन थर्ड फ्रंट से मिल रही चुनौती का दोनों गठबंधन दलों को मुश्किल में डाल सकती है। जेडीयू-भाजपा वाले गठबंधन की राह पहले ही लोक जनशक्ति पार्टी के अलग से चुनाव लड़ने के ऐलान के बाद आसान नहीं थी और अब खेल बिगाड़ने के लिए असदुद्दीन ओवैसी भी तीसरे फ्रंट में शामिल हो गए।
मायावती की पार्टी बसपा ने चुनाव से पहले कई दफा कई दलों के साथ गठबंधन किया लेकिन उनका गठबंधन एक-दो मौके को छोड़ दिया जाए तो कभी भी कारगर साबित नहीं हुआ। पुराने वर्षों में झांके तो करीब-करीब हर मौके पर चुनाव परिणाम आने के बाद सहयोगी दल के साथ उनकी तल्खी निकलकर सामने आई और उस दल के साथ बसपा के रिश्ते खराब हुए।
बसपा ने उत्तर प्रदेश में साल 1993 में समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन किया था। हालांकि, इस गठबंधन को पूर्ण बहुमत हासिल नहीं हो सकता था फिर भी उन्होंने दूसरे दलों के साथ मिलकर सरकार बना ली। लेकिन यह सरकार महज डेढ़ साल तक ही सत्ता में रह पाई थी। इस बीच दोनों दलों के बीच में काफी मनमुटाव हुआ और रिश्ते भी बिगड़ गए। जिसकी वजह से बसपा ने समर्थन वापस ले लिया था और फिर भाजपा के सहयोग से मायावती मुख्यमंत्री बनी थीं।
अब उत्तर प्रदेश की तरह बिहार में भी छोटे दलों के साथ मिलकर बसपा ने तीसरा फ्रंट बनाया है। लेकिन यह कितना कारगर साबित होता है यह तो चुनाव परिणाम आने के बाद ही पता चलेगा। इस फ्रंट ने मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार राष्ट्रीय लोक समता पार्टी के उपेंद्र कुशवाहा बनाया है जो पहले एनडीए का हिस्सा थे।
ओवैसी ने पहली बार मायावती के साथ हाथ मिलाया है। इसे महज एक प्रयोग के तौर पर देख सकते हैं क्योंकि मायावती असल में उत्तर प्रदेश की कुर्सी फिर से हासिल करने के जुगाड़ में लगी हुई हैं। अगर बिहार में ओवैसी के साथ गठबंधन सही साबित होता है तो डेढ़ साल बाद उत्तर प्रदेश में होने वाले विधानसभा चुनाव के लिए मायावती ओवैसी के साथ हाथ मिला सकती हैं। जानकारों का मानना है कि उत्तर प्रदेश की 18 फीसदी मुस्लिम आबादी पर ओवैसी की नजर काफी समय से थी लेकिन उन्हें उत्तर प्रदेश में लैंड करने का मौका नहीं मिल रहा था। यदि बिहार में तीसरा फ्रंट कामयाब होता है तो मायावती के जरिए प्रदेश में ओवैसी की एंट्री हो सकती है।
हैदराबाद से निकलकर ओवैसी ने महाराष्ट्र में एक सीट जीतने में कामयाब हुए थे। वहीं, बिहार की बात की जाए तो उपचुनाव में उन्हें एक सीट पर जीत हासिल हुई थी। ऐसे में वह अपनी पकड़ उत्तर प्रदेश में भी मजबूत करने का प्रयास करेंगे। जहां उन्हें बसपा का साथ मिल सकता है और यह दोनों पार्टियां एक-दूसरे के लिए मददगार भी साबित हो सकती हैं। हालांकि, ओवैसी उत्तर प्रदेश में बसपा से ज्यादा सीटों की मांग भी नहीं करेंगे क्योंकि प्रदेश में अभी उनका संगठन नहीं है। ऐसे में दलित-मुस्लिम वोट बैंक के लिए बसपा के साथ गठबंधन होने की संभावनाएं बन जाती हैं।