दिवाली 2020: बस्तर में होता है लक्ष्मी जगार, अशिक्षित गुरुमाताओं को कंठस्थ होता है हजारों पद :-
बस्तर मेंलक्ष्मी जगार गीत को महाकाव्य माना जाता है, परंतु यह वाचिक या मौखिक है। माता लक्ष्मी की आराधना के लिए आयोजित लक्ष्मी जगार में धनकुल बजाते हुए गायन करने वाली गुरुमाताएं अनपढ़ हैं, लेकिन उन्हंे इस अलिखित महाकाव्य के हजारों पद मुखाग्र हैं और इन पदों की गायकी 13 दिनों तक रोज करीब 15 घंटे गाकर पूरा करती हैं। इनकी परंपरागत गायकी के चलते ही बस्तर का यह वाचिक साहित्य अब तक सुरक्षित है। नई पीढ़ी की अनिच्छा के चलते इसकी गायकी के खत्म होने की आशंका भी व्यक्त की जा रही है। बस्तरांचल की हल्बी-भतरी लोक भाषाओं में जगार का शब्दिक अर्थ होता है जागरण। जनजीवन में धार्मिक, सामाजिक और नैतिक चेतना उत्पन्न् करना जगार गीतों का प्रमुख उद्देश्य है। जगार गीतों को हल्बी-भतरी लोक साहित्य का धन कहा जाता है।
पुजारी या किसी बुजुर्ग (गुरुमाता) के मार्गदर्शन में लक्ष्मी का पारंपरिक वाद्य यंत्रों (बांस के बने धनुष, एक मोटी सी झाड़ूनुमा यंत्र और एक सूपा) के साथ जुलूस निकलता है। विभिन्न् प्रथाओं व धार्मिक अनुष्ठानों के साथ गांव के तालाब में इसका पूजा-पाठ के साथ समापन होता है। प्रकारांतरों के साथ सारे बस्तर में इसका आयोजन होता है। किसी बाहरी व्यक्ति के लिए यह त्योहार न सिर्फ सांस्कृतिक सौगात, वरन आंखों व आत्मा को असीम संतोष देने वाला भी है।
जगार गीत वाचिक साहित्य है। लक्ष्मी जगार में 49 हजार, तीजा जगार में 24 हजार, आठे जगार में आठ हजार और बाली जगार में 44 हजार पद होते हैंं। लक्ष्मी जगार 13 दिनों तक चलता है, वहीं बाली जगार की अवधि 93 दिनों की होती है। जगार गायन करने वाली गायिकाओं को ही सम्मान में गुरु माता कहा जाता है। ये जगार के दौरान प्रतिदिन करीब 15 घंटे गायन करती हैं। इस वाचिक साहित्य को संरक्षित करने के उद्देश्य से ही कोंडागांव निवासी शोधकर्ता हरिहर वैष्णव ने लक्ष्मी जगार और तीजा जगार को लिपिबद्ध किया है। इन्हें वर्ष 2014 में भारतीय ज्ञानपीठ ने प्रकाशित किया है। लक्ष्मी जगार में कुल 389 पृष्ठ हैं।
बस्तर में अधिकतर लक्ष्मी जगार होते हैं। लक्ष्मी जगार प्रति वर्ष अगहन मास के शुरुवाती दिनों से प्रारंभ होकर धान की मिंडाई होते तक चलता है। लक्ष्मी जगार में लक्ष्मीजी की उत्पत्ति से लेकर उनके स्वर्गारोहण, पृथ्वी आगमन तथा विवाह तक का विस्तृत वर्णन रोचक तरीके से ग्रामीणों के मध्य होता है। जगार पर्वों की व्यवस्था ग्रामीण महिलाओं द्वारा की जाती है। पारंपरिक प्रावधान के अनुसार प्रत्येक जगार में दो गुरु माताएं अर्थात जगार गायिकाएं होती हैं। इन्हें पाट गुरुमाएं और चेली गुरुमाएं कहा जाता है। पाट गुरुमाएं के नेतृत्व में चेली गुरुमाएं धनकुल वादन करते हुए गायन में सहयोग करती हैंं। जगदलपुर, कोंडागांव, नारायणपुर, दंतेवाड़ा, बीजापुर और अंतागढ़ तहसीलों में जगह- जगह गुरुमाएं आबाद हैं और कार्यक्रम देती रहती हैंं। गुरुमाएं अपने फन में इतनी सिद्धहस्त और कला प्रवीण होती हैं कि उनके गायन-वादन में तालमेल का अभाव नजर ही नहीं आता।