समस्या दिवाली पर पटाखे फोड़ने की नही बल्कि इसे एक राष्ट्रीय और नैतिक मुद्दा बनाने की है :-
जब मैं ये लिख रहा हूं, बेंगलुरू में मेरे अपार्टमेंट की खिड़की से सतत आतिशबाज़ी के दृश्य दिख रहे हैं: मेरे मोहल्ले में गत वर्षों के मुकाबले यों तो कम पटाखे छोड़े जा रहे हैं, लेकिन फिर भी पूरा जोश दिख रहा है. ये अच्छा ही हुआ कि बीएस येदियुरप्पा की कर्नाटक सरकार ने पटाखों पर प्रतिबंध का अपना फैसला पलट दिया — हालांकि सिर्फ ‘ग्रीन’ पटाखों की ही अनुमति दी गई क्योंकि कम ही संभावना है कि लोग सामान्य तरीके से दिवाली मनाने से परहेज करते, और पहले से ही काम के बोझ तले दबी पुलिस को एक बेहद अलोकप्रिय आदेश को लागू करने का दायित्व निभाना पड़ता |
कोई संदेह नहीं कि ग्रीन हो या नहीं, पटाखे वायुमंडल में प्रदूषण को बढ़ाते हैं. उनसे आग का खतरा भी होता है. वे जानवरों को भयभीत करते हैं, और एक कुत्ते का पालक होने के कारण मुझे पूरा एहसास है कि उनके लिए ये कितना कष्टकारी अनुभव होता है. ये सब सच होने के बावजूद पटाखों पर देशव्यापी प्रतिबंध इसका जवाब नहीं है. वास्तव में संपूर्ण भारत में पटाखे पर पूर्ण पाबंदी कई तरह से विपरीत परिणामों वाली साबित सकती है, क्योंकि इस नीति की अलोकप्रियता के कारण सामाजिक रूप से रूढ़िवादी और प्रतिक्रियावादी राजनीति को बढ़ावा मिलेगा, परिणामत: आज़ादी और कानून के शासन का दायरा और कम होगा |