सोनिया गांधी का आज 73 वां जन्मदिन जाने उनसे जुड़े खास लम्हे
कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष सोनिया गांधी का आज 73 वां जन्मदिन है. इटली के एक छोटे से गांव की एक साधारण सी लड़की के भारत के सबसे बड़े राजनीतिक घराने की बहू बनने की कहानी किसी परी कथा से कम नहीं है.
सोनिया एंटोनिया मायनो का इस देश से रिश्ता एक रोमांस से शुरू हुआ था. तीन बेटियों में दूसरी सोनिया, पाओला और स्टेफानो के घर इटली के ट्यूरिन शहर के बाहरी इलाके ओरबैसानो में पैदा हुई थीं.
पिता ने बेटियों को बिल्कुल पारंपरिक ढंग से पाला पोसा. रोकटोक के बावजूद सोनिया के पिता आधुनिक सोच रखते थे. उन्हें विदेश में पढ़ने की इजाजत मिल गई. सोनिया को अंग्रेजी सीखनी थी, जिसके लिए उन्होंने अपने पिता से इंग्लैंड जाने की इजाजत मांगी.
सोनिया ने कैंब्रिज के लेंग्वेज कॉलेज में दाखिला लिया. पहले तो वहां रहने के दौरान उन्हें खाने की बहुत समस्या हुई. फिर कैंब्रिज में ही एक एक ग्रीक रेस्टोरेंट वार्सिटी में मिली, जहां वो नियमित तौर पर खाने जाने लगीं. राजीव गांधी भी अक्सर यहां आते थे. एक कॉमन मित्र के जरिए सोनिया और राजीव की पहली मुलाकात इसी रेस्तरां में हुई.
राजीव और सोनिया का रिश्ता इसी रेस्तरां से शुरू से हुआ, जो एक अटूट बंधन में बंध गया. हर प्रेम कहानी की तरह राजीव और सोनिया की जिंदगी में भी कई उतार-चढ़ाव आए. दोनों ने जब शादी का फैसला किया तो उनके परिवारों के लिए इस फैसले को मानना आसान नहीं था. राजीव जहां भारत की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के बेटे थे, तो वहीं सोनिया एक साधारण से परिवार की लड़की थी.
सोनिया के पिता को ये रिश्ता कतई मंजूर नहीं था, अपनी प्यारी सी बेटी एक अलग देश में भेजना नहीं चाहते थे. उनको इस बात का डर था कि भारत के लोग सोनिया को कभी स्वीकार नहीं करेंगे, लेकिन सोनिया और राजीव के प्यार के आगे सबको झुकना पड़ा और आखिर राजीव से मिलने के बाद सोनिया के पिता ने शादी के लिए हामी भर दी.
नयनतारा सहगल बताती हैं कि मुझे उनकी पहली याद तब की है जब इंदिरा ने मेरी मां को बुलाया और कहा फूफी, राजीव एक इटैलियन लड़की से प्यार करता है तो मेरी मां ने कहा- ये तो बहुत अच्छी बात है. हम उससे कब मिलेंगे. जब वो भारत से गईं तो मैं उनसे पहली बार तब मिली जब उनकी मेहंदी की रस्म थी. तब वो बच्चन परिवार के साथ थीं और वहीं उनकी मेहंदी रस्म रखी गई थी. उनके पैरों और हाथों पर मेहंदी रचाई गई और इसके बाद हमने साथ खाना खाया.
सोनिया और राजीव की जिंदगी के शुरुआती 13 साल कई उतार-चढ़ावों से होकर गुजरे क्योंकि पूरा परिवार एक के बाद एक दुखद घटनाओं से जूझ रहा था. पहले विमान दुर्घटना में संजय गांधी की मौत, उसके बाद इंदिरा गांधी की हत्या और सात साल बाद खुद राजीव गांधी की हत्या.
हर बार सोनिया को शिद्दत से ये एहसास हो रहा था कि ये राजनीति ही थी जो राजीव और उनकी जिंदगी की दुश्मन साबित हुई थी, पर विकल्प कोई नहीं था. बाद के सालों ने दिखाया कि विदेश में पैदा हुई ये गांधी अपनी जिंदगी और इस देश की सियासत की किताब नए सिरे से लिखने को तैयार हो रही थी. उनकी भावना की तुलना बाद में उन्हें मिली फतह से की जा सकती है.
साल 2004 में बीजेपी ने सोनिया की ताकत को अनदेखा किया था और अब बीजेपी के सामने ही सोनिया एक खास अंदाज में अपने लिए लिखे भाषण पढ़कर उस भारत तक पहुंच रही थीं जो उतना चमकदार नहीं था जितना दावा किया जा रहा था. सोनिया की लगातार एक ही कोशिश थी कि कांग्रेस को सरकार बनाने के लिए सहयोगी मिल जाएं. पुराने दुश्मन अब दोस्त का दर्जा पा गए थे. कुछ जातियों और समुदायों में सोनिया ने भी अपनी पैठ बना ली थी. अचानक सोनिया एम करुणानिधि, वायको, लालू प्रसाद यादव और रामविलास पासवान जैसे नेताओं की भी पसंद बन गई थीं.
राष्ट्रपति चुनाव, लाभ के पद के संकट और न्यूक्लियर करार पर तकरार जैसे जोखिम से गुजरकर सोनिया सत्ता में भागीदारी की कला अच्छी तरह जान गई थीं. एक सर्वशक्तिमान नेता और एक आज्ञाकारी प्रधानमंत्री के गठबंधन ने सत्ता में भागीदारी की नई परंपरा को जन्म दिया. सोनिया पार्टी के लिए जिम्मेदार थीं तो मनमोहन सरकार के लिए. ऐसी हिस्सेदारी पहले नहीं देखी गई थी फिर भी बहुत से लोग कहते हैं कि सत्ता सिर्फ सोनिया के पास ही रहती थी.
सोनिया ने बार-बार सरकार का फोकस आम आदमी की तरफ मोड़ने की कोशिश की. राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना, सूचना का अधिकार अधिनियम ये सभी तब आए जब 2006 तक वो नेशनल एडवाइजरी काउंसिल की अध्यक्ष थीं. इधर, दो साल से कम वक्त में दूसरी बार कांग्रेस अध्यक्ष फिर बाहर निकलीं और अपने पारिवारिक गढ़ रायबरेली में चुनावी समर के लिए वापस लौटीं.
हलाकि वर्ष 2014 में सत्ता से बाहर होने के बाद कांग्रेस कमजोर हुई है. दो बार लोकसभा के चुनावों में हार के बाद उसका जनाधार भी सिकुड़ता हुआ लग रहा है. लेकिन पार्टी की बागडोर अब भी कमोवेश सोनिया के ही कंधों पर है. बेशक उनकी सक्रियता अब पहले की तरह नहीं रह गई है लेकिन आज भी वो कांग्रेस की सबसे ज्यादा स्वीकार्य नेता हैं.