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उत्तर प्रदेश धर्मांतरण विरोधी अध्यादेश की क़ानूनी ग़लतियां इसे लाने की असली मंशा दिखाती हैं :-

सतही तौर पर उत्तर प्रदेश विधि विरुद्ध धर्म संपरिवर्तन प्रतिषेध अध्यादेश, 2020 वैसा ही प्रतीत होता है जैसे कि आठ अन्य राज्यों में पहले से मौजूद धर्मांतरण विरोधी कानून हैं. लेकिन बारीकी से देखने पर पता चलता है कि उत्तर प्रदेश का कानून इन सबसे कहीं ज़्यादा सख्त और खतरनाक है.

यही नहीं, इसमें ऐसी अनेक कानूनी गलतियां हैं जिनके चलते ऐसा लगता है कि यह कानून बनाने का निहित उद्देश्य लोगों को किसी भी सूरत में धर्म परिवर्तन करने से रोकना है और उस प्रक्रिया में ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को क़ानूनी पचड़े में फंसाकर परेशान करना है.

असल में ऐतराज़ अंतर-धार्मिक विवाह से लगता है
उत्तर प्रदेश के क़ानून की सबसे अनोखी बात है कि इसकी प्रस्तावना में ही ‘विवाह द्वारा’ धर्म परिवर्तन का निषेध किया गया है. मध्य प्रदेश और ओडिशा के क़ानून 1968 से हैं लेकिन उनमें कहीं भी विवाह की बात नहीं की गई है |

धर्मांतरण पर उत्तर प्रदेश सरकार का अध्यादेश, प्रमुख प्रावधान और सजाएं | Uttar  Pradesh Prohibition of Unlawful Conversion of Religion Ordinance 2020, key  provisions and penalties

मज़े की बात यह है कि ‘विवाह के लिए’ तो धर्म परिवर्तन संभव है, ‘विवाह द्वारा’ कोई धर्म परिवर्तन नहीं होता. ऐसा कहने का मतलब है कि वे ये मानकर चल रहे हैं कि दूसरे धर्म के व्यक्ति से विवाह कर लिया तो धर्म स्वतः ही बदल जाता है. यह घोर अज्ञान है.

मसलन, इस्लाम के संदर्भ में लंदन यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर मशूद बदेरिन का कहना है, ‘इस्लामिक कानून के तहत यदि कोई मुस्लिम पुरुष किसी ईसाई या यहूदी स्त्री (जो अहल-ए-किताब यानी दैवीय प्राकट्य की पुस्तकों को मानते हैं) से विवाह करता है तो वह शादी के बाद भी अपना धर्म मानने को स्वतंत्र होगी.’

धर्मांतरण करने से उसमें कोई हमेशा के लिए फंस नहीं जाता
उत्तर प्रदेश का क़ानून यह समझ ही नहीं पाया है कि धर्मांतरण कोई ऐसा केमिकल रिएक्शन नहीं है जो एक बार हो गया सो हो गया. धर्मांतरण दिमाग में किया जाता है, शरीर में नहीं. जब भी विचार बदल जाएं, धर्म बदल दीजिए.

जैसे कंप्यूटर में ‘अन डू’ [Undo] बटन होता है, अगर आप को कहीं से लगता है कि आपके साथ धोखा हो गया था या आप बेवकूफ बना दिए गए थे तो कंप्यूटर की भांति ही आप अपने दिमाग में ‘अन डू’ बटन दबा सकते हैं और नए धर्म से मुक्त हो सकते हैं.

धोखे से कोई आर्थिक या अन्य नुकसान हुआ हो तो पुलिस में जा सकते हैं.

संविधान के अनुच्छेद 25 में ऐसी कोई बंदिश नहीं है कि एक बार आपने कोई धर्म स्वीकार कर लिया तो आप किसी निश्चित समय तक उसे मानते रहने के लिए बाध्य हैं. आपकी मर्जी, आप कोई धर्म मानें या कोई भी धर्म न मानें.

जो लोग यह कुतर्क करें कि इस्लाम स्वीकार करने पर खतना कराना पड़ता है और शरीर में हो गए इस परिवर्तन को तो पल्टा नहीं जा सकता, उनकी जानकारी के लिए खतना कराना प्रचलित है पर अनिवार्य नहीं.

दूसरी बात यह कि धर्म परिवर्तन करते समय यह अपेक्षा भी नहीं की जाती कि आप बुद्धि को गिरवी रख दिए होंगे.

सुप्रीम कोर्ट ने अंतर-धार्मिक विवाह के प्रसंग में क़ानून व्यवस्था बिगड़ने की बात ही नहीं की थी
इस प्रसंग में कुछ लोग सुप्रीम कोर्ट के स्टैनिस्लॉस फैसले का हवाला देते हैं कि उसमें तो मध्य प्रदेश और ओडिशा के धर्मांतरण विरोधी कानूनों को वैध ठहराया गया था.

वे इस बात पर ध्यान नहीं देते कि उपरोक्त फैसले में इन कानूनों को इस आधार पर वैध ठहराया गया था कि ज़बरदस्ती धर्मांतरण के कारण (जिससे जनता का अंतर्मन या विवेक आहत हो) राज्य में क़ानून व्यवस्था की स्थिति बिगड़ सकती है.

कानून व्यवस्था की बात पर कोई विवाद है ही नहीं क्योंकि जबरन धर्मांतरण की स्थिति में अनेक अपराध शामिल हो सकते हैं, जैसे किसी को बाधित कर रखना (धारा 342 आईपीसी), धमकाना (धारा 506 आईपीसी), अपहरण (धारा 359-369 आईपीसी), बल-प्रयोग (धारा 352 आईपीसी) और दैवीय प्रकोप की धमकी देना (धारा 508 आईपीसी) आदि.

ध्यान देने की बात यह है कि मध्य प्रदेश और ओडिशा के धर्मांतरण विरोधी कानूनों में कहीं भी अंतर-धार्मिक विवाह का ज़िक्र नहीं था और न ही सुप्रीम कोर्ट ने उस पर कोई टिप्पणी की थी. इसलिए उत्तर प्रदेश के क़ानून का ऐसा कोई अधिकार नहीं बनता कि वो बिना किसी प्रमाण या तर्क के अंतर-धार्मिक विवाहों को कानून व्यवस्था से जोड़ दे.

देश में एक साल में लगभग 36,000 अंतर-धार्मिक विवाह होते हैं, जिनमें आबादी के लिहाज से उत्तर प्रदेश में कोई 6,000 होते होंगे. आज तक तो देश में कभी, कहीं भी कानून व्यवस्था की स्थिति उनके कारण से नहीं बिगड़ी है. तो ऐसा मानने का क्या कारण है कि अब उत्तर प्रदेश में ही ऐसे खतरे की आशंका होने लगी?

वस्तुतः यह तर्क भी दिया जा सकता है कि वरदहस्त प्राप्त कुछ लोग और संगठन ही अंतर-धार्मिक विवाहों के नाम पर क़ानून व्यवस्था बिगाड़ने पर तुले हुए हैं.

उत्तर प्रदेश के क़ानून में ग़लतियों और बदनीयती की भरमार
उत्तर प्रदेश के क़ानून के धारा 2 (च) ने एक नई चीज़ ‘सामूहिक धर्म संपरिवर्तन’ का आविष्कार किया है. अगर दो से ज़्यादा लोग एक साथ धर्म परिवर्तन करेंगे तो वो इस श्रेणी में आएगा.

यानी मां-बाप के साथ उनकी वयस्क संतान ने भी धर्म बदल लिया तो ये बड़ी गंभीर बात होगी. संतान ने नहीं बदला तो इतनी गंभीर बात नहीं होगी. इस मूर्खता को क्या कहा जाए?

चाहे कोई एक मर्डर करे या सौ, सज़ा उतनी ही होती है. ये लोग नहीं समझते कि धर्म परिवर्तन की तुलना सामूहिक बलात्कार से नहीं की जा सकती.

सामूहिक बलात्कार को ज्यादा गंभीर अपराध इसलिए माना जाता है क्योंकि उसमें अनेक व्यक्तियों द्वारा मिलकर एक असहाय पर अत्याचार की घोर अनैतिकता निहित है.

धारा 2 (झ) ने भी एक नया आविष्कार किया है, ‘धर्म परिवर्तक.’ यह बात तो तथ्यात्मक रूप से ही ग़लत है क्योंकि धर्म परिवर्तन के लिए किसी परिवर्तक की अनिवार्यता नहीं होती. आप एकांत में भी धर्म परिवर्तन कर सकते हैं.

जैसे, इस्लाम कुबूल करने के लिए तहे दिल और विश्वास के साथ अस्सशहद (ला इलाह इल्लल्लाह मुहम्मद उर रसूल अल्लाह) को समझकर बोल देना ही पर्याप्त है.

ऐसा लगता है कि ‘धर्म परिवर्तक’ जैसी काल्पनिक चीज को इसलिए जानबूझकर घुसाया गया है कि उस बहाने ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को फंसाया जा सके.

धारा 3 में भी दो नई चीज़ें डाली गई हैं, जो मध्य प्रदेश और ओडिशा के धर्मांतरण विरोधी कानूनों में नहीं हैं.

पहला तो ‘विवाह द्वारा’ धर्म परिवर्तन. दूसरा धर्म परिवर्तन के लिए उत्प्रेरित करना (एबेटमेंट), विश्वास दिलाना (कन्विंस), या षड्यंत्र करना (कॉन्स्पिरेसी) भी निषिद्ध कर दिए गए हैं.

अब उत्प्रेरित करना (एबेटमेंट) और षड्यंत्र (कॉन्स्पिरेसी) तो आईपीसी में बताए गए हैं. विश्वास दिलाना (कन्विंस) कहीं किसी क़ानून में नहीं है. यह शुद्ध बकवास है.

इसका मतलब यह हुआ कि कहीं चाय की दुकान पर चार लोग धर्म विशेष के बारे में बात भी कर रहे हों, तो पांचवां ग्राहक कह सकता है कि ये लोग हमारे धर्म परिवर्तन का प्रयास कर रहे हैं.

आप समझ सकते हैं कि इसका उद्देश्य भी यही है कि उस बहाने ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को फंसाया जा सके.

इस धारा का दूसरा भाग और भी दिलचस्प है. यह कहता है कि यदि कोई व्यक्ति अपने ठीक पूर्व के धर्म को वापस स्वीकार कर लेता है तो इस काम को धर्म परिवर्तन माना ही नहीं जाएगा.

आप देख सकते हैं कि नाम लिए बिना ही यह किस प्रकार से तथाकथित ‘घर वापसी’ की बात का समर्थन करता है. इसका मतलब यह हुआ कि धर्म परिवर्तन किए हुए लोगों को उनके पुराने धर्म में वापस लाने के लिए कुछ लोग या संगठन कुछ भी करें, उनके ऊपर इस क़ानून के तहत कोई कार्यवाही नहीं होगी.

धारा 4 कहती है कि आपसे रक्त, शादी या एडॉप्शन के द्वारा जुड़े हुए लोग आपके धर्म परिवर्तन के खिलाफ शिकायत कर सकते हैं.

मां-बाप, भाई-बहन का शिकायत करने का अधिकार तो समझा जा सकता है, रक्त के द्वारा तो चचेरे-फुफेरे-ममेरे सब तरह के भाई-बहन भी जुड़े हैं. फिर शादी के द्वारा दुनिया भर के जीजा-भाभी-साली-सलहज-ननद-ननदोई आदि जुड़े हैं. ये सभी लोग, यहां तक कि आपके दत्तक पुत्र-पुत्री भी शिकायत कर सकते हैं.

यानी आपने धर्म क्या बदल लिया कि इनसे जीवन भर डरकर रहिए, जाने कब कौन आपको ब्लैकमेल कर ले!

धारा 5 (2) कहती है कि ‘धर्म परिवर्तन के पीड़ित’ को पांच लाख रुपये तक मुआवजा भी मिलेगा. पर क्यों, यह नहीं बताया गया है.

अब तक तो सुना था कि बलात्कार जैसे अपराध के पीड़ित को मुआवजा मिलता है. क्या ये लोग समझते हैं कि धर्म परिवर्तन कर लेने पर भी किसी ‘पीड़ा या संत्रास’ से गुजरना पड़ता है? क्या पिछले धर्म के देवता आदि स्वप्न में आकर सताने लग जाते हैं?

धारा 8 (3) ने धर्म परिवर्तन के लिए नोटिस देने की व्यवस्था की है. लेकिन इसमें पचड़े की बात यह है कि डीएम उस पर पुलिस से इन्क्वायरी कराएंगे.

अब हिंदुस्तान में कौन नहीं जानता कि ऐसे प्राविधान से पुलिस को असीमित अधिकार प्राप्त हो जाते हैं. एक तो यह भारी रिश्वत का स्रोत हो जाएगा और दूसरे, पुलिस रिपोर्ट में कुछ भी सच-झूठ लिख सकती है. फिर आप दौड़ते रहिए हाईकोर्ट!

धारा 9 ने तो मूर्खता की हर सीमा पार कर दी है. इसके तहत धर्म परिवर्तन के बाद भी आपको डीएम के यहां एक घोषणा देनी होगी और वे उसे नोटिस बोर्ड पर लगाएंगे ताकि आम लोग उस पर आपत्तियां दर्ज करा सकें.

पूछिए क्यों? क्या आप को पुलिस इन्क्वायरी रिपोर्ट पर भरोसा नहीं था? और नहीं, तो फिर उसका प्रावधान ही क्यों किया? ज़ाहिर है कि परेशान करने के सिवा इसका और कोई उद्देश्य नहीं है.

धारा 12 दिलचस्प है. धर्म परिवर्तन क़ानून सम्मत था इसके सबूत का भार परिवर्तन कराने वाले के ऊपर डाला गया है. यानी जिसने धर्म परिवर्तन किया है, उसके अपने बयान का कोई महत्व ही नहीं है!

हद है! सीधी सी बात है, सारी कवायद तथाकथित परिवर्तकों को तंग करने की है.

उत्तर प्रदेश के क़ानून की सख्ती का आलम ये है कि जहां मध्य प्रदेश और ओडिशा के कानूनों में एक साल की सज़ा का प्रावधान है, इसमें सज़ा पांच साल तक है. तथाकथित सामूहिक धर्म संपरिवर्तन के लिए दस साल तक की सज़ा का प्रावधान है.

वे भी इसी देश में हैं. इतना अंतर क्यों? पाठक खुद ही अनुमान लगा सकते हैं.

यह क़ानून उच्च न्यायालयों के फैसलों और संविधान के विरुद्ध है
अगर सरकार की मंशा जबरन धर्मांतरण को रोकने की ही थी तो इसका सबसे सरल उपाय था कि जिसने धर्म परिवर्तन किया है उससे जुडिशियशल मजिस्ट्रेट के सामने बयान दिलवा दिया जाता.

अदालत के सामने दिए बयान से ज्यादा महत्व किस चीज़ का होता. लेकिन यहां तो पेचीदा क़ानून बना कर लोगों को तंग करना है |

अभी हाल में ही इलाहाबाद और कर्नाटक हाईकोर्ट ने लगभग एक से फैसलों में कहा है कि अपनी पसंद के व्यक्ति, चाहे वो किसी भी धर्म का क्यों न हो, के साथ रहने का अधिकार जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार में निहित है और उसमें किसी प्रकार से हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता |

दिल्ली हाईकोर्ट ने तो पुलिस को हिदायत भी दी कि लड़की के माता-पिता को कहा जाए कि वे उसे धमकाने से बाज आएं |

उत्तर प्रदेश का यह क़ानून उपरोक्त फैसलों के तथा संविधान के अनुच्छेद 25 के खिलाफ जाता है. इसलिए आशा है कि अदालत द्वारा यह संविधान विरुद्ध करार दिया जाकर रद्द कर दिया जाएगा |

लेकिन इसमें जो न्याय और तर्क विरुद्ध प्रावधान हैं, उनसे यह स्पष्ट है कि इसे बनाने के पीछे नीयत क्या है. इस क़ानून में भले ही ‘लव जिहाद’ जैसे ग़लत शब्दों का प्रयोग न किया गया हो पर जनता असलियत जानती है |

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