उत्तराखंड में प्रांतीय सिविल सेवा (पीसीएस) के जरिये प्रदेश की सेवा करने का सपना देख रहे हजारों युवाओं का इंतजार लंबा होता जा रहा है। यहां 2016 के बाद से पीसीएस की परीक्षा नहीं हो पाई है। राज्य गठन के बाद 2002 में सरकार ने तय किया था की पीसीएस अफसरों की भर्ती के लिए हर साल उत्तराखंड लोक सेवा आयोग को अधियाचन भेजा जाएगा। कुछ सालों तक तो ऐसा हुआ, लेकिन फिर यह प्रक्रिया धीमी पड़ गई। सरकारों की गंभीरता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि राज्य गठन के बाद अभी तक पीसीएस की कुल छह परीक्षाएं हुई हैं। इनमें भी आखिरी परीक्षा 2016 में हुई थी। इसके बाद परीक्षा न होने के कारण हजारों युवाओं को निराश ही होना पड़ा है। सरकारी महकमों में भी इस संवर्ग के कई अहम पद रिक्त चल रहे हैं, जिससे प्रशासनिक कार्य गति नहीं पकड़ पा रहे हैं।
पैसा मिला, नहीं बनी आटोमेटेड टेस्टिंग लेन
प्रदेश में 10 वर्ष से पूर्व प्रस्तावित आटोमेटेड टेस्टिंग लेन आज तक अस्तित्व में नहीं आ पाई है। इतना जरूर हुआ कि बीते 10 वर्षों में इनकी संख्या एक से बढ़कर चार हो गई और बजट में तीन गुना बढ़ोतरी। केंद्र सरकार ने इसमें सहयोग देने की हामी भरी, लेकिन धरातल पर फिलहाल अभी कोई काम नहीं हुआ है। दरअसल, प्रदेश में दुर्घटनाओं के बढ़ते ग्राफ को देखते हुए वर्ष 2009 में ऋषिकेश में आटोमेटेड टेस्टिंग लेन बनाने की स्वीकृति प्रदान की गई। इसके लिए तीन करोड़ का बजट भी मंजूर हुआ। टेस्टिंग लेन का फायदा यह था कि इसमें वाहनों की फिटनेस तेजी से जांची जा सकती है। अब बजट 10 करोड़ हो चुका है, लेकिन अधिकारियों की लचर कार्यशैली के चलते टेस्टिंग लेन अभी तक नहीं बन पाई हैं। इस कारण परिवहन विभाग के तकनीकी अधिकारी अभी भी आंखों से वाहनों की फिटनेस की जांच कर रहे हैं।
हाथियों के निर्बाध विचरण को राह नहीं
प्रदेश में हाथियों और जंगली जानवरों को अभी तक जंगलों में निर्बाध विचरण के लिए राह नहीं मिल पाई है। इसका मुख्य कारण जंगलों में इनके पारंपरिक गलियारों में मानव हस्तक्षेप है। गलियारों में रेलवे लाइन, सड़क अथवा बस्तियां बन गई हैं। जंगली जानवर, विशेषकर हाथी अपने पारंपरिक मार्ग पर ही विचरण करते हैं। इसका सीधा असर मानव-वन्यजीव संघर्ष के रूप में नजर आ रहा है। प्रदेश में अभी 11 स्थानों पर हाथियों के पारंपरिक गलियारे हैं। साथ ही हाथी कुछ नए गलियारे भी बना रहे हैं। इससे मानव-वन्यजीव संघर्ष बढ़ रहा है। राज्य गठन के बाद इस संघर्ष में 750 व्यक्तियों की जान गई है, तो 400 से अधिक हाथियों की भी मौत हो चुकी है। यह जरूर है कि कुछ स्थानों पर बहुत जल्द गलियारे खुल जाएंगे। नैनीताल हाईकोर्ट इन गलियारों को खोलने की बात कह चुका है, लेकिन इस दिशा में ठोस कदम नहीं उठ पाए हैं।
बजट न होने से अच्छी योजनाएं खत्म
राज्य गठन के बाद प्रदेश में पलायन को रोकने के लिए हर सरकार कदम उठाने का दावा करती है। योजनाएं भी बनाई जाती हैं लेकिन इन्हें धरातल पर उतारने को पूरे कदम नहीं उठाए जाते। इस कारण ये योजनाएं शुरू होने से पहले ही दम तोड़ देती हैं। पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकार द्वारा बनाई गई ऐसी ही दो योजनाएं थीं, मेरा गांव-मेरा धन और मेरा पेड़-मेरा धन। वर्ष 2015 में तत्कालीन राज्य सरकार ने ये योजनाएं शुरू की थी। इनका मकसद खाली हो रहे गावों को आबाद करना था। इस योजना में प्रवासी सहित अन्य स्थानीय निवासियों को गांव में निवेश करने के लिए प्रोत्साहित करना था। इसमें गांवों में पौधा रोपण करने और भवन बनाना भी प्रस्तावित किया गया। शुरुआत में थोड़ा काम हुआ, फिर चुनावी वर्ष तक पहुंचते-पहुंचते ये बिसरा दी गईं। नई सरकार ने इन योजनाओं के औचित्य पर सवाल उठाए तो दोनों योजनाएं अब कालातीत हो गईं।