बिहार में दही-चूड़ा भोज के जरिए नए सियासी समीकरणों को गढ़ने की परंपरा 26 साल बाद टूट गई है। कोरोना संक्रमण के दौर में इस बार सियासी गलियारों में मकर संक्रांति पर दही-चूड़ा भोज का आयोजन नहीं होगा। न ही राजनीतिक दलों के बीच गहमागहमी देखी जा सकेगी। राष्ट्रीय जनता दल प्रमुख लालू प्रसाद यादव और उनकी पार्टी तथा जनता दल यूनाइटेड के वरिष्ठ नेता बशिष्ठ नारायण सिंह के भोज की कमी खलेगी।
लालू प्रसाद यादव ने 1994-95 में की थी शुरुआत
बिहार में दही-चूड़ा भोज की शुरुआत लालू प्रसाद ने 1994-95 में की थी। तब वे मुख्यमंत्री थे। लालू प्रसाद यादव ने आम लोगों को अपने साथ जोड़ने के लिए दही-चूड़ा भोज का आयोजन शुरू किया था। इसकी खूब चर्चा हुई। फिर यह आरजेडी की परंपरा बन गई। चारा घोटाला में उनके जेल जाने के बाद पार्टी ने यह परंपरा कायम रखी।
हालांकि, इस बार न तो आरजेडी कार्यालय में और न ही राबड़ी देवी आवास पर दही-चूड़ा भोज का आयोजन हो रहा है। हां, लालू प्रसाद यादव ने मकर संक्रांति को लेकर सोशल मीडिया के जरिए पार्टी के लिए संदेश जरूर जारी किया है। उन्होंने अपने विधायकों और पार्टी के अन्य नेताओं को गरीबों को दही-चूड़ा खिलाने का निर्देश दिया है। कोरोना की वजह से जेडीयू ने भी संक्रांति पर भोज आयोजित नहीं किया है। पार्टी के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष बशिष्ठ नारायण सिंह ने औपचारिक रूप से संदेश जारी कर इसकी जानकारी दी है।
बिहार में खूब होती रही है दही-चूड़ा पर सियासत
बिहार में दही-चूड़ा भोज के आयोजन में आनेवाले दिनों की राजनीति के अक्स भी देखे जाते रहे हैं। महागठबंधन की सरकार के दौर में साल 2017 की मकर संक्रांति के अवसर पर आरजेडी सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव ने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को दही का टीका लगाकर बड़ा राजनीतिक संदेश दिया था। मतलब आरजेडी व जेडीयू में सबकुछ ठीक रहने का संदेश देने का था। हालांकि, यह कोशिश नाकाम नही। मकर संक्रांति के ऐसे ही एक दही-चूड़ा भोज के दौरान लालू प्रसाद यादव व नीतीश कुमार के कटे-कटे अंदाज से आने वाले वक्त की राजनीति झलकती दिखी थी। बिहार में एक बार फिर राजनीतिक कयासों के बीच मकर संक्रांमित केदही-चूड़ा भोज का इंतजार था। लेकिन इस बार की संक्रांति बिना कोई राजनीतिक संकेत दिए जाती दिख रही है।